राह-ए-हस्ती के हर इक मोड़ से बच कर निकले अहल-ए-दानिश से तो दीवाने ही बेहतर निकले वक़्त की तेज़ हवाओं ने अजब मोड़ लिया फूल से हाथ जो थे उन में भी पत्थर निकले तेरी यादों के सहारे जो गुज़ारे हम ने वो ही लम्हात फ़क़त अपना मुक़द्दर निकले हम ने ग़ैरों के भी अश्कों को लिया दामन पर चाहे ख़ुद ग़म के समुंदर में नहा कर निकले उन की फ़रियाद का आहों का असर होगा अपने हाथों से जो घर अपना जला कर निकले ग़म ज़माने की जफ़ाओं का करें क्या 'ख़ालिद' जब गरेबान ही काँटों से सजा कर निकले