रह-ए-हयात में बस वो क़दम बढ़ा के चले दिए लहू के सर-ए-राह जो जला के चले गुलों को प्यार क्या और गले लगा के चले चमन में ख़ारों से दामन न हम बचा के चले पता चला न मसाफ़त का पा गए मंज़िल क़दम से जब भी क़दम दोस्तो मिला के चले नहीं हैं वाक़िफ़-ए-असरार-ए-लज़्ज़त-ए-मंज़िल जो राह-ए-शौक़ से काँटे हटा हटा के चले हज़ार ख़ार हैं दामन को थामने वाले हमारे हाथ से आँचल जो तुम छुड़ा के चले वो गुज़रें शौक़ से बे-ख़ौफ़ ओ बे-ख़तर 'साग़र' दिखा के रास्ता मंज़िल को हम बता के चले