रह-ए-हयात में कोई चराग़ ही न मिला किसी दिमाग़ से अपना दिमाग़ ही न मिला ग़म-ए-ज़माना से फ़ुर्सत तो मिल भी सकती थी तुम्हारी याद से लेकिन फ़राग़ ही न मिला सिला-ए-ख़ास की लज़्ज़त को उम्र-भर तरसे कि उन के हाथ से कोई अयाग़ ही न मिला ब-जुज़ लताफ़त एहसास-ए-जुस्तुजू दिल में निगार-ए-रफ़्ता का कोई सुराग़ ही न मिला तुम उस से पूछते हो लज़्ज़त-ए-ग़म-ए-हिज्राँ ग़म-ए-हयात से जिस को फ़राग़ ही न मिला बस अब ये ख़ून-ए-तमन्ना हो नज़्र-ए-वीराना तलाश थी हमें जिस की वो बाग़ ही न मिला तुम्ही बताओ कि ऐसे में क्या बनाते घर कि घर के वास्ते कोई चराग़ ही न मिला हर एक शख़्स से हँस कर मिले जो हम 'नूरी' हमारे सीने में दुनिया को दाग़ ही न मिला