रह-ए-इरफ़ाँ में अपने होश को माइल समझते हैं हुई जब बे-ख़ुदी तारी उसे मंज़िल समझते हैं वुफ़ूक़-ए-शौक़ को है तंग अक़्सा-ए-दो-आलम भी फ़ज़ा-ए-ला-मकाँ परवाज़ के क़ाबिल समझते हैं बक़ा ज़ाहिर में ज़र्रात-ए-अदम का इक हयूला है हक़ीक़त में फ़ना को ज़ीस्त का हासिल समझते ज़माने का असर होता नहीं है हाल पर अपने कि यकसाँ हालत-ए-माज़ी-ओ-मुस्तक़बिल समझते हैं