रह-ए-जुनूँ में चला यूँ मैं उम्र-भर तन्हा कि जैसे कोई बगूला करे सफ़र तन्हा उदासी रूह से गुज़री है इस तरह जैसे उजाड़ दश्त में पतझड़ की दोपहर तन्हा भटक रही है ख़लाओं में यूँ नज़र जैसे हो रात में किसी गुमराह का गुज़र तन्हा गुज़र गए जरस-ए-गुल के क़ाफ़िले कब के तका करे यूँही अब गर्द-ए-रह-गुज़र तन्हा नसीम-ए-सुब्ह मुझे भी गले लगाती जा मैं वो दिया हूँ जला है जो रात-भर तन्हा नज़र में थी भरे बाज़ार की सी वीरानी हुजूम में भी रहे हम नगर नगर तन्हा अँधेरी रात हवा सख़्त तेज़ वहशत-ए-दिल हम ऐसी शब में भी फिरते हैं दर-ब-दर तन्हा मुसाफ़िरों पे 'मुसव्विर' न जाने क्या बीती सफ़ीना आया है साहिल पे लौट कर तन्हा