राह-ए-तलब में अहल-ए-दिल जब हद-ए-आम से बढ़े कश्मकश-ए-हयात के और भी हौसले बढ़े किस से ये पूछिए भला तिश्ना-लबों को क्या मिला कहने को यूँ तो रोज़ ही सैकड़ों मय-कदे बढ़े कोशिश-ए-पैहम आफ़रीं मंज़िल अब आ गई क़रीब मुज़्दा हो आरज़ू-ए-दिल पाँव के आबले बढ़े आते ही उस ने बज़्म में रुख़ पे नक़ाब डाल ली हाए वो मंज़र-ए-हसीं जैसे दिए जले बढ़े वक़्त की आज़माइशें लाती हैं ज़ीस्त पर निखार फूलों को देख लीजिए काँटों में जो पले-बढ़े ताबिश-ए-हुस्न-ए-यार ने छीन ली ताब-ए-अर्ज़-ए-शौक़ जितने क़रीब आए वो उतने ही फ़ासले बढ़े राहों के रुख़ बदल गए मंज़िलें दूर हो गईं ख़िज़्र के ए'तिबार पर जब कभी क़ाफ़िले बढ़े