रहगुज़र के साथ इक हमराह भी तो चाहिए और आग़ाज़-ए-सफ़र को चाह भी तो चाहिए नाज़ और अंदाज़ ये सब इश्क़ के रहबर हैं सब हम को इस तूफ़ाँ की लेकिन थाह भी तो चाहिए आह-ओ-गिर्या सोग मातम शाइ'री में कर के नज़्म अपनी अय्यारी पे अब कुछ वाह भी तो चाहिए मस्लहत अल्लाह की कुछ होगी दर्द-ए-इश्क़ में है सुकूँ की बात पर अल्लाह भी तो चाहिए जीत उन की है कि जो करते नहीं इज़हार-ए-दर्द ज़ुल्म को सर चाहिए पर आह भी तो चाहिए कब तक आख़िर करते जाएँ हम ये कार-ए-इंतिज़ार साल में दो साल में तनख़्वाह भी तो चाहिए ख़ुद-कुशी इक आख़िरी कोशिश है ज़िंदा रहने की ख़ुद-कुशी करने को इक परवाह भी तो चाहिए