रही अगरचे निगारों की मेहरबानी भी बहुत ख़राब कटी रात भी जवानी भी तुझे गँवा के तिरे वासतों का क्या करते इसी लिए तो न रक्खी कोई निशानी भी दिल-ओ-निगाह के रस्तों में कौन हाइल है कि हम पे बंद हुए रौशनी भी पानी भी अगर लबों से न निकले अगर दिलों में रहे बहुत नई है अभी बात इक पुरानी भी अज़ाब-ए-सोहबत-ए-ना-जिंस के शिकार हैं हम ख़ुदा ज़मीं पे हमें दे हमारा सानी भी