राही कोई नहीं है कोई रहनुमा नहीं जिस राह पर चला हूँ कहीं नक़्श-ए-पा नहीं सज्दे मिरे ज़मान-ओ-मकाँ से हैं बे-नियाज़ काबा से बुत-कदे से कोई राब्ता नहीं दिल है कहीं ख़याल कहीं है नज़र कहीं ऐ शैख़ तेरा एक भी सज्दा रवा नहीं बे-कैफ़ सी है रात तो बे-लुत्फ़ सा है दिन सच तो ये है कि जीने में कुछ भी मज़ा नहीं शाम-ओ-सहर बहार-ओ-ख़िज़ाँ रंज-ओ-इम्बिसात कोई भी इंक़लाब की ज़द से बचा नहीं तन्क़ीद कर रहे हैं वो अशआ'र पर 'ज़मीर' शेर-ओ-सुख़न से जिन को कोई वास्ता नहीं