रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी चाहे तो करे राहिब-ए-बुत-ख़ाना को नाजी किस दिन न उठा दिल से मिरे शोर-ए-परस्तिश किस रात यहाँ काबे में नाक़ूस न बाजी मैं आप कमर-बस्ता हूँ अब क़त्ल पे अपने बिन यार है जीने से मिरा बस कि ख़फ़ा जी इक सीने में दिल रखते हैं हम सो भी वो क्या दिल जो रोज़ रहे लश्कर-ए-सुल्ताँ का ख़राजी तुम शब मुझे देते हुए गाली तो गए हो मैं भी किसी दिन तुम से समझ लूँगा भला जी शीशा मय-ए-गुलगूँ का है या रंग-ए-शफ़क़ से रंग अपने दिखाता है मुझे चर्ख़-ए-ज़ुजाजी ऐ 'मुसहफ़ी' मैं अफ़्सह-ए-शीरीं-सुख़नाँ हूँ कब मुझ से तरफ़ हो सके है हर कोई पाजी