राज़-ए-सर-बस्ता मोहब्बत के ज़बाँ तक पहुँचे बात बढ़ कर ये ख़ुदा जाने कहाँ तक पहुँचे क्या तसर्रुफ़ है तिरे हुस्न का अल्लाह अल्लाह जल्वे आँखों से उतर कर दिल-ओ-जाँ तक पहुँचे तिरी मंज़िल पे पहुँचना कोई आसान न था सरहद-ए-अक़्ल से गुज़रे तो यहाँ तक पहुँचे हैरत-ए-इश्क़ मिरी हुस्न का आईना है देखने वाले कहाँ से हैं कहाँ तक पहुँचे खुल गया आज निगाहें हैं निगाहें अपनी जल्वे ही जल्वे नज़र आए जहाँ तक पहुँचे वही इस गोशा-ए-दामाँ की हक़ीक़त जाने जो मिरे दीदा-ए-ख़ूँनाबा-फ़िशाँ तक पहुँचे इब्तिदा में जिन्हें हम नंग-ए-वफ़ा समझे थे होते होते वो गिले हुस्न-ए-बयाँ तक पहुँचे आह वो हर्फ़-ए-तमन्ना कि न लब तक आए हाए वो बात कि इक इक की ज़बाँ तक पहुँचे किस का दिल है कि सुने क़िस्सा-ए-फ़ुर्क़त मेरा कौन है जो मिरे अंदोह-ए-निहाँ तक पहुँचे खलिश-अंगेज़ था क्या क्या तिरी मिज़्गाँ का ख़याल टूट कर दिल में ये नश्तर रग-ए-जाँ तक पहुँचे न पता संग-ए-निशाँ का न ख़बर रहबर की जुस्तुजू में तिरे दीवाने यहाँ तक पहुँचे न ग़ुबार-ए-रह-ए-मंज़िल है न आवाज़-ए-जरस कौन मुझ रहरव-ए-गुम-कर्दा-निशाँ तक पहुँचे साफ़ तौहीन है ये दर्द-ए-मोहब्बत की 'हफ़ीज़' हुस्न का राज़ हो और मेरी ज़बाँ तक पहुँचे