रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से बहलाए जाते हैं यहाँ प्यासे सराब से दिन में भी घर उजाले से महरूम है तो है किरनों का क्या सवाल करूँ आफ़्ताब से बिल्कुल दुरुस्त होते हुए फ़ेल हो गया मैं ने जवाब नक़्ल किया था किताब से वो साल हो कि माह हो दिन हो कि हो घड़ी बाक़ी नहीं बचूँगा किसी के हिसाब से हर शय पर इक उचटती नज़र डालता चलूँ बे-कार होगा मेरा उतरना रिकाब से तरमीम हज़्फ़ और इज़ाफ़े के साथ साथ ये कुल्लियात पुर है मिरे इंतिख़ाब से