रंग अपना न जमा उन पे असर कुछ न हुआ ख़ून रोने से भी ऐ दीदा-ए-तर कुछ न हुआ रोज़ टल जाता है दीदार का वा'दा कल पर अब तक इस का असर ऐ अहल-ए-ख़बर कुछ न हुआ न समझता था कि मर जाऊँगा मैं हिज्र की शब हैफ़ ज़िंदा ही रहा ता-ब-सहर कुछ न हुआ सुल्ह-ए-कुल वाले ही इंसान कहे जाते हैं शर किया जिस ने किसी से वो बशर कुछ न हुआ वार उस तेग़-ए-अदा का कभी ख़ाली न गया मुँह पे ली हम ने कई बार सिपर कुछ न हुआ वस्ल का ख़ात्मा सद-शुक्र हुआ सुल्ह के साथ चैन से रात बसर हो गई शर कुछ न हुआ वही मोती है जो हो सर्फ़ तिरे ज़ेवर में जो न इन कानों तक आया वो गुहर कुछ न हुआ आँख की बंद यहाँ और वहाँ जा पहुँचे मंज़िल-ए-मुल्क-ए-अदम का तो सफ़र कुछ न हुआ क्या कहें ज़ोर न क़िस्मत से चला ऐ 'अकबर' कोशिशें वस्ल की लाखों हुईं पर कुछ न हुआ