रंग अश्कों का बदलने भी नहीं देता वो और मुझे घर से निकलने भी नहीं देता वो डसता रहता है बहुत मेरी अना को पल-पल अपनी क़ुर्बत से निकलने भी नहीं देता वो ज़ब्त चेहरे की तमाज़त से अयाँ है लेकिन मेरी आँखों को उबलने भी नहीं देता वो काग़ज़-ए-दिल को भिगोता है नए अश्कों से फिर ये काग़ज़ कभी जलने भी नहीं देता वो बस डराता है कि उस राह पे फिसलन है बहुत इश्क़ की राह पे चलने भी नहीं देता वो चाहता है कि मैं गिर जाऊँ नज़र से उस की इस लिए मुझ को सँभलने भी नहीं देता वो मेरे किरदार में ढलता भी नहीं ख़ुद 'राही' अपने किरदार में ढलने भी नहीं देता वो