रंग काला है न है पैकर सियाह आदमी दर-अस्ल है अंदर सियाह अब कहाँ क़ौस-ए-क़ुज़ह के दाएरे अब है ता-हद्द-ए-नज़र मंज़र सियाह कितना काला हो गया था उस का दिल जिस्म से निकला तो था ख़ंजर सियाह वक़्त ने सँवला दिया सारा बदन धीरे धीरे हो गया मरमर सियाह धूप काफ़ी दूर तक थी राह में लम्हा लम्हा हो गया पैकर सियाह