रंग सारे अपने अंदर रफ़्तगाँ के हैं हम कि बर्ग-ए-राएगाँ नख़्ल-ए-ज़ियाँ के हैं शीशा-ए-उम्र-ए-रवाँ से ख़ौफ़ आता है अक्स इस में साअत-ए-कम-मेहरबाँ के हैं हम को क्या ला-हासिली ही इश्क़ में गर है हम तो ख़ूगर यूँ भी कार-ए-राएगाँ के हैं तेरे कूचे की हवा पूछे है अब हम से नाम क्या है क्या नसब है हम कहाँ के हैं हम को क्या अर्ज़ ओ समा के सब ख़ज़ानों से हम तो आशिक़ एक इस्म-ए-जावेदाँ के हैं मेरे परतव ने तिलिस्म-ए-तीरगी तोड़ा और अब रौशन मनाज़िर ख़ाक-दाँ के हैं हम को क्या मौज-ए-फ़ना से ख़ौफ़ आएगा मुंतज़िर हम ख़ुद ज़वाल-ए-रंग-ए-जाँ के हैं इम्तिहाँ ये सख़्तियाँ ये गर्दिशें 'असलम' सब इशारे एक चश्म-ए-मेहरबाँ के हैं