रंग-ए-नज़र से हुस्न-ए-तमन्ना निखार के बैठी हूँ आज काकुल-ए-हस्ती सँवार के गुज़री हूँ मैं नफ़स की कशाकश से जिस तरह धारों से लड़ रही थी किसी आबशार के पाँव के आबलों से न पूछो सफ़र का हाल क़िस्से हैं दर्दनाक रह-ए-ख़ार-ज़ार के दौर-ए-ख़िज़ाँ गया न गया इस से क्या ग़रज़ मंज़र जमा लिए हैं नज़र में बहार के वक़्त-ए-सहर है गरचे उजाला अभी नहीं ये जाल रफ़्ता रफ़्ता खुलेंगे ख़ुमार के वो आ रही है दूर से ख़ुर्शीद की किरन 'शाहीन' दर खुले हैं मिरे इंतिज़ार के