रंगीं बना के दामन-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर को मैं गुलज़ार कर रहा हूँ फ़ज़ा-ए-नज़र को मैं गाता हूँ साज़-ए-दिल पे तराने सहर को मैं बेदार कर रहा हूँ किसी फ़ित्ना-गर को मैं मुल्ज़िम नज़र है या सर-ए-शोरीदा का क़ुसूर का'बा समझ रहा हूँ तिरे संग-ए-दर को मैं चुन कर गुल-ए-नियाज़ क़रीब-ए-बिसात-ए-दिल बाग़-ए-इरम बनाता हूँ दाग़-ए-जिगर को मैं वहशी बना हुआ है मिरी मानता नहीं अल्लाह क्या करूँ दिल-ए-शोरीदा-सर को मैं ऐ हुस्न-ए-दिल-नवाज़ मिरी हिम्मतें तो देख दिल दे के मूल लेता हूँ दर्द-ए-जिगर को मैं संग-ए-दर-ए-हबीब को का'बा बना न लूँ जल्वा समझ के हुस्न-ए-फ़रेब-ए-नज़र को मैं ज़ाहिद नमाज़-ए-इश्क़ की तज्दीद के लिए फिर उस के नक़्श-ए-पा पे झुकाता हूँ सर को मैं मेरी तरह मुझे वो नज़र आएँ बे-क़रार करता हूँ अपनी आह में पैदा असर को मैं शायद नियाज़-मंद को हासिल नियाज़ हो हसरत से तक रहा हूँ तिरी रहगुज़र को मैं करता हूँ ज़ब्त-ए-ग़म कि न खुल जाए राज़-ए-इश्क़ दिल में छुपा के रखता हूँ तीर-ए-नज़र को मैं 'अनवर' गईं न दिल की मिरे बद-गुमानियाँ रहज़न समझ रहा हूँ हर इक राहबर को मैं