रंज इक तल्ख़ हक़ीक़त का फ़क़त है मुझ को मेरे अहबाब ने आँका ही ग़लत है मुझ को बा'द मुद्दत के गुलाबों की महक आई है उस ने परदेस से भेजा कोई ख़त है मुझ को मौज-ए-तूफ़ान से बेगाना हुआ हूँ फिर मैं फिर मयस्सर हुई आसानी-ए-शत है मुझ को हर्फ़ की शक्ल में ढलती हैं लकीरें ख़ुद से आ के देता कोई पैग़ाम-ए-नुक़त है मुझ को कर दिया कुंद हवाओं की नमी ने जिस को उसी ख़ंजर से लगाना कोई क़त है मुझ को कुंज-ए-तारीक में यूँ झाँक रहा हूँ 'राहत' जैसे दरकार कोई बैज़ा-ए-बत है मुझ को