रंज-ओ-ग़म की जब मिरे दिल में फ़रावानी न थी जी रहा था मैं मगर जीने में आसानी न थी मुझ को ले पहुँचा जुनून-ए-शौक़ ऐसी बज़्म में जिस जगह कोई भी सूरत जानी-पहचानी न थी किस को फ़ुर्सत थी उठाता चाँद की जानिब नज़र क्या हमारे दिल के दाग़ों में दरख़शानी न थी एक ऐसा वक़्त भी गुज़रा है मुझ पर क्या कहूँ जब मिरी आवाज़ अपनों ने भी पहचानी न थी ये हक़ीक़त थी कि था मेरे तसव्वुर का कमाल दूर तेरे संग-ए-दर से मेरी पेशानी न थी ऐसा लगता है कि कोई इंक़लाब आने को है वर्ना पहले तो नज़र कुछ इतनी दीवानी न थी