'मीर'-जी से अगर इरादत है क़ौल-ए-'नासिख़' की क्या ज़रूरत है कौन पूछे ये 'मीर'-साहिब से इन दिनों क्या जुनूँ की सूरत है चाँद किस मह-जबीं का परतव है रात किस ज़ुल्फ़ की हिकायत है क्या हवा-ए-बहार ताज़ा है क्या चराग़-ए-सराए इबरत है ज़िंदगी किस शजर का साया है मौत किस दश्त की मसाफ़त है आग में क्या गुल-ए-मआनी हैं ख़ाक में क्या नुमू की सूरत है क्या पस-ए-पर्दा-ए-तवहहुम है क्या सर-ए-पर्दा-ए-हक़ीक़त है इस कहानी का मरकज़ी किरदार आदमी है कि आदमिय्यत है काटता हूँ पहाड़ से दिन रात मसअला इश्क़ है कि उजरत है फिर मोहब्बत का फ़ल्सफ़ा क्या है ये अगर सब लहू की वहशत है एक तो जाँ-गुसिल है तन्हाई इस पे हम-साएगी क़यामत है और जैसे उसे नहीं मालूम शहर में क्या हमारी इज़्ज़त है उस ने कैसे समझ लिया कि मुझे ख़्वाब में जागने की आदत है घर से शायद निकल पड़े वो भी आज कुछ धूप में तमाज़त है हम यूँही मुब्तला से रहते हैं या किसी आँख की मुरव्वत है 'मीर' बोले सुनो 'रसा' मिर्ज़ा इश्क़ तो आज भी सदाक़त है इस जहान-ए-बुलंद-ओ-पस्त के बीच कुछ अगर है तो अपना क़ामत है