रसीले ख़्वाब सारे खो चुकी हूँ बहुत रूखी हक़ीक़त हो चुकी हूँ जगाए कोई सूरज सुब्ह-ए-नौ का पुरानी रात सदियों सो चुकी हूँ ग़मों को हँस के सहना आ गया है मैं अपनी हर ख़ुशी को रो चुकी हूँ मैं अपने दिल की बंजर सर-ज़मीं में ख़ुशी के बीज कितने बो चुकी हूँ बहुत मैली थी चादर ज़िंदगी की उसे अश्कों से अपने धो चुकी हूँ चला है साथ तन्हाई का जंगल तिरे हमराह जब से हो चुकी हूँ अमानत ये भी लौटाई है उस को बदन का बोझ बरसों ढो चुकी हूँ रहा कहने को अब क्या और 'पिंहाँ' ग़ज़ल से हाल सब तो कह चुकी हूँ