रस्म ऐसों से बढ़ाना ही न था ख़िदमत-ए-नासेह में जाना ही न था बढ़ गए कुछ और उन के हौसले रोने वालों को हँसाना ही न था दिल का भी रखना था हम को कुछ ख़याल इस तरह आँसू बहाना ही न था कल ज़माना ख़ुद मिटा देता जिन्हें ऐसे नक़्शों को मिटाना ही न था बे-पिए वाइज़ को मेरी राय में मस्जिद-ए-जामा में जाना ही न था रह गया आँखों में नक़्शा आप का नज़अ में सूरत दिखाना ही न था ख़ुद वो दे देते तो अच्छा था 'अज़ीज़' क्या कहें यूँ ज़हर खाना ही न था