रात आँगन में चाँद उतरा था तुम मिले थे कि ख़्वाब देखा था अब कि ख़ुद हैं हिसार-ए-ज़ात में बंद वर्ना अपना भी ज़ोर चलता था शीशा-ए-दिल पे ऐसी चोट पड़ी एक लम्हे में रेज़ा रेज़ा था उस के कूचे के हो लिए वर्ना रास्ता हर तरफ़ निकलता था रुत जो बदली तो ये भी देख लिया पत्ता पत्ता ज़मीं पे बिखरा था एक ख़ुश्बू है जानी पहचानी इस ख़राबे में कौन रहता है मोम की तरह वो पिघल सा गया वो जो पत्थर की तरह लगता था अब कि सुनते नहीं हो बात मगर फिर कहोगे कि कोई कहता था रात सुनसान थी मगर 'नादिर' हश्र सा दिल में एक बरपा था