रात चराग़ की महफ़िल में शामिल एक ज़माना था लेकिन साथ में जलने वाली रात थी या परवाना था ख़िज़र नहीं रहज़न ही होगा राह में जिस ने लूट लिया लेकिन यारो शक होता है कुछ जाना पहचाना था शब-भर जिस रूदाद-ओ-अलम पर अश्क बहाते गुज़री थी सुब्ह हुई तो हम ने जाना अपना ही अफ़्साना था कौन हमारे दर्द को समझा किस ने ग़म में साथ दिया कहने को तो साथ हमारे तुम क्या एक ज़माना था लोग उसे जो चाहें कह लें अपना तो ये हाल रहा सिर्फ़ उन्हीं से ज़ख़्म मिले हैं जिन से कुछ याराना था मस्लहतों की इस बस्ती में लब खुलते ये ताब न थी वज़-ए-जुनूँ की बात न पूछो वो भी एक बहाना था तल्ख़ी-ए-ग़म पहुँचे थे भुलाने सूद-ओ-ज़ियाँ में उलझे हैं बादा-फ़रोशों की मंडी थी नाम मगर मय-ख़ाना था जिन की ख़ातिर हम ने अपना ज़ौक़-ए-तलब बदनाम किया आज वही कहते हैं हँस कर शाइ'र था दीवाना था