रात प्यासा था मेरे लोहू का हूँ दिवाना तिरे सग को का शोला-ए-आह जूँ-तूँ अब मुझ को फ़िक्र है अपने हर बिन मू का है मिरे यार की मिसों का रश्क कुश्ता हूँ सब्ज़ा-ए-लब-ए-जू का बोसा देना मुझे न कर मौक़ूफ़ है वज़ीफ़ा यही दुआ-गो का मैं ने तलवार से हिरन मारे इश्क़ कर तेरी चश्म-ओ-अबरू का शोर क़ुलक़ुल के होती थी माने रीश-ए-क़ाज़ी पे रात मैं थूका इत्र-आगीं है बाद-ए-सुब्ह मगर खुल गया पेच-ए-ज़ुल्फ़ ख़ुश्बू का एक दो हूँ तो सहर-ए-चश्म कहूँ कारख़ाना है वाँ तो जादू का 'मीर' हर-चंद मैं ने चाहा लेक न छुपा इश्क़-ए-तिफ़्ल बद-ख़ू का नाम उस का लिया इधर-ऊधर उड़ गया रंग ही मिरे रू का