रात सुनसान दश्त ओ दर ख़ामोश चाँद तारे शजर हजर ख़ामोश कोई आवाज़-ए-पा न बाँग-ए-जरस कारवाँ और इस क़दर ख़ामोश हर तरफ़ इक मुहीब सन्नाटा दिल धड़कता तो है मगर ख़ामोश हुए जाते हैं किस लिए आख़िर हम-सफ़र बात बात पर ख़ामोश हैं ये आदाब-ए-रहगुज़र कि ख़ौफ़ राह-रौ चुप हैं राहबर ख़ामोश मुख़्तसर हो न हो शब-ए-तारीक हम को जलना है ता सहर ख़ामोश ढल चुकी रात बुझ गईं शमएँ राह तकती है चश्म-ए-तर ख़ामोश जाने क्या बात कर रहे थे कि हम हो गए एक नाम पर ख़ामोश हम से 'शाइर' भी हो गए आख़िर रंग-ए-हालात देख कर ख़ामोश