रता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर लावबाली का हुनर सीखा है उस शमशीर-ज़न ने बेद-ए-माली का हर इक जो उज़्व है सो मिसरा-ए-दिलचस्प है मौज़ूँ मगर दीवान है ये हुस्न सर-ता-पा जमाली का नगीं की तरह दाग़-ए-रश्क सूँ काला हुआ लाला लिया जब नाम गुलशन में तुम्हारे लब की लाली का रक़ीबाँ की हुआ नाचीज़ बाताँ सुन के यूँ बद-ख़ू वगर्ना जग में शोहरा था सनम की ख़ुश-ख़िसाली का हमारे हक़ में नादानी सूँ कहना ग़ैर का माना गिला अब क्या करूँ उस शोख़ की मैं ख़ुर्द-साली का यही चर्चा है मज्लिस में सजन की हर ज़बाँ उपर मिरा क़िस्सा गोया मज़मूँ हुआ है शेर-ए-हाली का तुम्हारा क़ुदरती है हुस्न आराइश की क्या हाजत नहीं मुहताज ये बाग़-ए-सदा-सरसब्ज़ माली का लगे है शीरीं उस को सारी अपनी उम्र की तल्ख़ी मज़ा पाया है जिन आशिक़ नीं तेरे सुन के गाली का मुबारक नाम तेरे 'आबरू' का क्यूँ न हो जग में असर है यू तिरे दीदार की फ़र्ख़ुंदा-फ़ाली का