रतजगों की सल्तनत तस्ख़ीर कर कुछ दिए का नाम भी तहरीर कर है हिसार-ए-ज़ात के बाहर शिकस्त तू मिरे अंदर मुझे ता'मीर कर फुर्क़तों का ज़हर मुझ को पच गया गर्दिश-ए-दौराँ मिरी तौक़ीर कर या बदन की क़ैद से आज़ाद कर या किसी ग़म से मुझे ज़ंजीर कर ख़्वाब आँखों में अगर रक्खे हैं तू फिर हथेली पर भी कुछ तहरीर कर कुछ दिए के दुख सुना मुझ को 'अमीर' कुछ हवा के नाम भी तहरीर कर