रौनक़ तिरे कूचे की बढ़ाने चले आए अरबाब-ए-जुनूँ हश्र उठाने चले आए अब और नुमाइंदगी-ए-शब न करो तुम हम परचम-ए-ख़ुरशीद उड़ाने चले आए जब गर्मी-ए-शबनम से बदन जलने लगा है हम आग के दरिया में नहाने चले आए जो लोग मिरा नक़्श-ए-क़दम चूम रहे थे अब वो भी मुझे राह दिखाने चले आए जिन से मुझे फूलों की थी उम्मीद वही लोग काँटे मिरी राहों में बिछाने चले आए ये गर्दिश-ए-हालात की है ज़र्रा-नवाज़ी वो ख़ुद ही मुझे आज मनाने चले आए क्या ये भी कोई अंजुमन-ए-माह-वशाँ है 'राही' भी ग़ज़ल अपनी सुनाने चले आए