रौशन दिल-ए-आरिफ़ से फ़ुज़ूँ है बदन उन का रंगीं है तबीअत की तरह पैरहन उन का महरूम ही रह जाती है आग़ोश-ए-तमन्ना शर्म आ के चुरा लेती है सारा बदन उन का जिन लोगों ने दिल में तिरे घर अपना किया है बाहर है दो-आलम से मिरी जाँ वतन उन का हर बात में वो चाल किया करते हैं मुझ से उल्फ़त न निभेगी जो यही है चलन उन का आरिज़ से ग़रज़ हम को अनादिल को है गुल से है कूचा-ए-माशूक़ हमारा चमन उन का है साफ़ निगाहों से अयाँ जोश-ए-जवानी आँखों से सँभलता नहीं मस्ताना-पन उन का ये शर्म के मा'नी हैं हया कहते हैं इस को आग़ोश-ए-तसव्वुर में न आया बदन उन का ग़ैरों ही पे चलता है जो अब नाज़ का ख़ंजर क्यूँ बीच में लाया था मुझे बाँकपन उन का ग़ैरों ने कभी पाक नज़र से नहीं देखा वो उस को न समझें तो ये है हुस्न-ए-ज़न उन का इस ज़ुल्फ़-ओ-रुख़-ओ-लब पे उन्हें क्यूँ न हो नख़वत तातार है उन का हलब उन का यमन उन का अल्लाह रे फ़रेब-ए-नज़र-ए-चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ बंदा है हर इक शैख़ हर इक बरहमन उन का आया जो नज़र हुस्न-ए-ख़ुदा-दाद का जल्वा बुत बन गया मुँह देख के हर बरहमन उन का मरक़द में उतारा हमें तेवरी को चढ़ा कर हम मर भी गए पर न छुटा बाँकपन उन का गुज़री हुई बातें न मुझे याद दिलाओ अब ज़िक्र ही जाने दो तुम ऐ जान-ए-मन उन का दिलचस्प ही आफ़त है क़यामत है ग़ज़ब है बात उन की अदा उन की क़द उन का चलन उन का