रौशनी मेरी हुआ चाहती है बस वो दरवाज़ा खुला चाहती है क़त्ल होने से बचा चाहती है मेरी तन्हाई दुआ चाहती है बेल ज़िद्दी है जुनूँ की मेरी वो लिपटने को हवा चाहती है घर का दरवाज़ा कभी खुलता नहीं फिर भी दहलीज़ दिया चाहती है मेरी तख़्लीक़ ख़फ़ा है मुझ से मेरी पहचान जुदा चाहती है दिल ये चाहे कि मैं रूठूँ उस से रूह क्यूँ ज़ब्त-ए-अना चाहती है काश गुलशन ने ये पूछा होता कौन सा फूल 'सबा' चाहती है