रवाँ है नूर का इक सैल हर-बुन-ए-मू से मुझे छुआ है किसी ने हज़ार पहलू से बदल के रख दिया जंगल को शहर में उस ने तमाम दश्त परेशाँ है एक आहू से ख़ुदा के वास्ते अब रोक भी ये रक़्स-ए-जुनूँ सदा कुछ और ही आने लगी है घुंघरू से उन्हें मैं वक़्त के काँधे पे डाल देता हूँ जो बोझ उठते नहीं मेरे दस्त ओ बाज़ू से हर एक अहद ने लिक्खा है अपना नामा-ए-शौक़ किसी ने ख़ूँ से लिखा है किसी ने आँसू से मिरा सवाल ग़ज़ल के मुख़ालिफ़ीन से है मुझे निकल के दिखा दें ग़ज़ल के जादू से