रेग-ए-रवाँ पे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा न देखना आईना-ए-ज़मीर में चेहरा न देखना बे-सर्फ़ा है लहू की तमाज़त मिरे लिए असरार-ए-जिस्म-ओ-जाँ को बरहना न देखना जो आँसुओं के लाल-ओ-जवाहर बिखेर दे उस एक मौज-ए-दर्द को उठता न देखना रातों का चैन दिन का सुकूँ हो अगर अज़ीज़ चलता है साथ साथ जो साया न देखना है शब की आस्तीं में गुनाहों की रौशनी ज़ख़्म-ए-नज़र से सूरत-ए-ज़ेबा न देखना हम भी फ़सील-ए-शहर के साए में आ रुके वा हो दर-ए-मुराद तो सहरा न देखना ये एहतियात-ए-वज़-ए-जुनूँ ही नहीं मगर राह-ए-वफ़ा में अपने को बेगाना देखना हर शाख़ पर जले हुए लम्हों की राख है फ़स्ल-ए-बहार ज़ख़्म-ए-तमन्ना न देखना