रेत के इक शहर में आबाद हैं दर दर के लोग बे-ज़मीं बे-आसमाँ बे-पाँव के बे-सर के लोग मेरा घायल जिस्म है मेरी रिहाइश का पता मैं जहाँ रहता हूँ रहते हैं वहाँ पत्थर के लोग एक इक लम्हा है क़तरा ज़िंदगी के ख़ून का आफ़ियत का साँस भी लेते हैं तो डर डर के लोग और दीवारों से दीवारें निकलती हैं अभी साथ रह कर भी अलग रहते हैं सारे घर के लोग चाँद मिट्टी का दिया है ये किसे मा'लूम था आसमाँ-दर-आसमाँ उड़ते रहे बे-पर के लोग झाँक कर देखा है हम ने वक़्त के हम्माम में अपने ही जैसे नज़र आए हैं दुनिया-भर के लोग