रिंदान-ए-तिश्ना-काम को जा कर ख़बर करें आई बहार अब्र-ए-करम पर नज़र करें हूँ मुन्फ़इल ज़रूर मगर ऐ गुनाह-ए-इश्क़ अब अश्क भी नहीं हैं जो दामन को तर करें बे-वज्ह कब है पुर्सिश-ए-हाल-ए-शब-ए-फ़िराक़ मक़्सद ये है इज़ाफ़ा-ए-दर्द-ए-जिगर करें फ़ुर्सत के दिन हैं साक़ी-ए-मय-कश-नवाज़ उठ क्यूँ इंतिज़ार-ए-मौसम-ए-दीवाना-गर करें मुझ पर उठा रहे हैं जो महफ़िल में उँगलियाँ अपनी हक़ीक़तों पे तो आख़िर नज़र करें का'बे में ख़ामोशी है सनम-ख़ाने में सुकूत सूरत-परस्त अब तिरे सज्दा किधर करें उफ़ रे जमाल-ए-जल्वा-ए-जानाँ की ताबिशें देखें उन्हें कि मातम-ए-ताब-ए-नज़र करें औराक़-ए-दो-जहाँ पे भी होगा न इख़्तिताम 'एहसान' सरगुज़श्त-ए-अलम मुख़्तसर करें