रिश्तों की काएनात में सिमटी हुई हूँ मैं मुद्दत से अपने आप को भूली हुई हूँ मैं मैं ख़ुश-नसीब हूँ मिरे अपनों का साथ है तन्हाइयों से फिर भी क्यूँ लिपटी हुई हूँ मैं दम घोंटती रही हूँ तमन्ना का हर समय इन हसरतों की क़ब्र सजाती रही हूँ मैं आती है याद आप की मुझ को कभी कभी ऐसा नहीं कि आप को भूली हुई हूँ मैं उस चारा-गर को ज़ख़्म दिखाऊँ या चुप रहूँ इस कश्मकश में आज भी उलझी हुई हूँ मैं हूँ फ़िक्रमंद आज के हालात देख कर बेटी की माँ हूँ इस लिए सहमी हुई हूँ मैं जज़्बात कैसे नज़्म करूँ अपने शेर में कब से इसी ख़याल में डूबी हुई हूँ मैं बेकार ज़िंदगी में ये कैसी ख़लिश 'सिया' सब कुछ मिला है फिर भी कमी ढूँढती हूँ मैं