रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं इश्क़ आग़ाज़ में हल्की सी ख़लिश रखता है बाद में सैकड़ों आज़ार से लग जाते हैं पहले पहले हवस इक-आध दुकाँ खोलती है फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते हैं बेबसी भी कभी क़ुर्बत का सबब बनती है रो न पाएँ तो गले यार से लग जाते हैं कतरनें ग़म की जो गलियों में उड़ी फिरती हैं घर में ले आओ तो अम्बार से लग जाते हैं दाग़ दामन के हों दिल के हों कि चेहरे के 'फ़राज़' कुछ निशाँ उम्र की रफ़्तार से लग जाते हैं