रोज़-ओ-शब और नए अर्ज़-ओ-समा माँगे है आज का दौर नई आब-ओ-हवा माँगे है अपनी बेचारगी की यूँ तो है एहसास बहुत फिर भी दिल तुझ से वही अहद-ए-वफ़ा माँगे है धूप में झुलसी हुई शाख़ पे अफ़्सुर्दा कली फूल बनने के लिए दस्त-ए-सबा माँगे है हर कोई यूँ तो है बर-गश्ता-ए-हालात मगर हर कोई जीने की हर लहज़ा दुआ माँगे है आह वो वालिद-ए-बे-ज़र की जवाँ बेटी के सूने हाथों के लिए रंग-ए-हिना माँगे है ये नए तौर ये अंदाज़ मुझे रास नहीं मेरी तहज़ीब वही शर्म-ओ-हया माँगे है सैंकड़ों ने'मतों से उस ने नवाज़ा है तुझे और अब 'चाँद' तू अल्लाह से क्या माँगे है