रोज़-ओ-शब हम ने अश्क-बारी की इंतिहा है ये बे-क़रारी की मेरा दामन सियाह था फिर भी ऐ ख़ुदा तू ने पासदारी की जाने कब का मैं मर गया होता उन की यादों ने आबियारी की कोसता ही रहा मुझे हर दम क़दर क्या जाने वो भिकारी की ख़ाक हूँ ख़ाक में ही मिलना है बू भी आती है ख़ाकसारी की काम मैं ने क्या मुसव्विर का मैं ने शे'रों में दस्त-कारी की मैं तो मजनून बन गया 'बिस्मिल' मुझ पे लोगों ने संग-बारी की