रूदाद-ए-शौक़ ये है मिरी मुख़्तसर तमाम रानाइयों में खो गया ज़ौक़-ए-नज़र तमाम गुज़रा है गुल-बदन कोई मेरी तलाश में महकी हुई है आज मिरी रहगुज़र तमाम वो दिन भी क्या थे जब थी हवाओं से गुफ़्तुगू अब हम से बात करते हैं दीवार-ओ-दर तमाम ख़ुद अपना एहतिसाब गवारा नहीं उन्हें औरों में ऐब ढूँडते हैं दीदा-वर तमाम तन्हाइयाँ नसीब का उन्वान बन गईं एक एक कर के छूट गए हम-सफ़र तमाम होने लगे हैं मेरी ख़मोशी पे तब्सिरे अब जान ले के छोड़ेंगे ये चारागर तमाम क्या सोच कर चले थे 'ज़िया' राह-ए-शौक़ में शायद न हो सके ये सफ़र उम्र-भर तमाम