रू-ए-ज़मीं नहीं कि सर-ए-आसमाँ नहीं सच पूछिए तो उस के निशाँ हैं कहाँ नहीं ख़ुद हम में आज हिम्मत ओ अज़्म-ए-जवाँ नहीं वर्ना पहुँच से दूर कभी आसमाँ नहीं बस एक ज़ात-ए-हक़ के सिवा काएनात में हर शय फ़ना-पज़ीर है कुछ जावेदाँ नहीं तुम ने जो कुछ कहा सो कहा अपना अपना ज़र्फ़ ऐसा नहीं कि मेरे दहन में ज़बाँ नहीं दिल में हमारे हसरत-ओ-अरमाँ का है हुजूम कैसे कहें कि हम पे कोई मेहरबाँ नहीं कर अर्ज़-ए-मुद्दआ मगर ऐ दिल रहे ख़याल इंकार कर दिया तो करेगा वो हाँ नहीं 'ताबिश' वो सामने ही है उड़ता हुआ ग़ुबार बस दो क़दम से दूर है अब कारवाँ नहीं