रूह से तन को छुपाते कैसे हैं फिर वफ़ा ख़ुद से निभाते कैसे हैं कितनी लम्बी होती है ये ज़िंदगी जाने लोग इस को बिताते कैसे हैं कितनी ताक़त की ज़रूरत है भला ज़ीस्त का ये बोझ उठाते कैसे हैं दर्द का इम्काँ न हो कुछ इस तरह ज़ख़्म पर मरहम लगाते कैसे हैं इन अँधेरों से गुज़र कर ख़्वाब ये चश्म तक फिर आते जाते कैसे हैं 'अहद' बोलो क्या तुम्हें मा'लूम है रास्ता अपना बनाते कैसे हैं