रुका हूँ किस के वहम में मिरे गुमान में नहीं चराग़ जल रहा है और कोई मकान में नहीं वो ताइर-ए-निगाह भी सफ़र में साथ है मिरे कि जिस का ज़िक्र तक अभी किसी उड़ान में नहीं मिरी तलब मिरे लिए मलाल छोड़ कर गई जो शय मुझे पसंद है वही दुकान में नहीं कोई अजीब ख़्वाब था अगर मैं याद कर सुकूँ कोई अजीब बात थी मगर वो ध्यान में नहीं वो दुश्मनी की शान से मिले तो दिल में रह गए मगर ये बात दोस्ती की आन-बान में नहीं मैं रिज़्क़-ए-ख़्वाब हो के भी उसी ख़याल में रहा वो कौन है जो ज़िंदगी के इम्तिहान में नहीं वो ख़्वाब शाम-ए-हिज्र में सहर की आस था मुझे मगर वो तेरे वस्ल की खुली अमान में नहीं