रुख़ की रंगत गुलाब की सी है और चमक आफ़्ताब की सी है कम-सिनी में वो आफ़त-ए-जाँ हैं जो अदा है शबाब की सी है आप के होते हूर को चाहें क्या वो सूरत जनाब की सी है ग़ुंचे में कोई बात भी कहिए दहन-ए-ला-जवाब की सी है आँखें नर्गिस लड़ाती है हम से ये भी उस बे-हिजाब की सी है ऐ गुल-ए-तर तिरे पसीने में रंग और बू गुलाब की सी है न हो बावर तो देखें आईना शक्ल इस में जनाब की सी है रौशनी माह-ओ-मेहर-ए-अनवर में कब रुख़-ए-ला-जवाब की सी है अभी उभरे अभी मिटेंगे हम अपनी हस्ती हबाब की सी है क्यूँ न चूमें तुम्हारी सूरत को ये ख़ुदा की किताब की सी है तर्ज़ उन के सितम की ऐ 'साबिर' करम-ए-बे-हिसाब की सी है