रुख़्सत-ए-नुत्क़ ज़बानों को रिया क्या देगी दर्स हक़-गोई का ये बिंत-ए-ख़ता क्या देगी सज्दा करती है लईमों के दरों पर दुनिया बे-नियाज़ों को ये बे-शर्म भला क्या देगी यही होगा कि न आएगी कभी घर मेरे मुझ को दुनिया-ए-दुनी और सज़ा क्या देगी साल-हा-साल के तूफ़ाँ में भी दिल बुझ न सका ज़क उसे सरकशी-ए-मौज-ए-हवा क्या देगी कोई मौसम हो महकते हैं यहाँ ज़ख़्म के फूल मेरे दामन को तही-दस्त सबा क्या देगी दिल तो कुछ कहता है पर शर्म से उठते नहीं हाथ देखना है कि ये बे-दस्त दुआ क्या देगी ख़्वाहिश-ए-मर्ग है कुछ पाने की मौहूम उम्मीद ज़िंदगी दे न सकी कुछ तो क़ज़ा क्या देगी ख़्वाब देखे हैं तो बेदार रहो उम्र तमाम चश्म-ए-ख़्वाबीदा को ताबीर-ए-सिला क्या देगी इसी ज़िंदान में अब काट दो उम्र अपनी 'वहीद' मैं न कहता था तुम्हें क़ैद-ए-वफ़ा क्या देगी