रुख़-ए-रौशन दिखाइए साहब शम्अ को कुछ जलाइए साहब रूह हो कर समाइए साहब मेरे क़ालिब में आइए साहब शैख़-जी हो तुम्हें सुरूद हराम आप अपनी न गाइए साहब वस्ल की शब क़रीब आई है अब न मेहंदी लगाइए साहब ख़ून-ए-उश्शाक़ है मआनी में शौक़ से पान खाइए साहब मैं तजल्ली-ए-तूर देखूँगा आज कोठे पे आइए साहब आप दिल में बिगाड़ रखते हैं बस न बातें बनाइए साहब चश्म-ए-तर रोने पर है आमादा और सूखी सुनाइए साहब बोसा-ए-रुख़ तो चाहते हो 'सख़ी' कहीं मुँह की न खाइए साहब