रुख़-ए-रौशन का रौशन एक पहलू भी नहीं निकला जिसे मैं चाँद समझा था वो जुगनू भी नहीं निकला वो तेरा दोस्त जो फूलों को पथराने का आदी था कुछ उस से शोबदा-बाज़ी में कम तू भी नहीं निकला अभी किस मुँह से मैं दावा करूँ शादाब होने का अभी तर्शे हुए शाने पे बाज़ू भी नहीं निकला घरों से किस लिए ये भीड़ सड़कों पर निकल आई अभी तो बाँटने वो शख़्स ख़ुश्बू भी नहीं निकला शिकारी आए थे दिल में शिकार-ए-आरज़ू करने मगर इस दश्त में तो एक आहू भी नहीं निकला तिरी भी हुस्न-कारी के हज़ारों लोग हैं क़ाइल गली-कूचों से लेकिन उस का जादू भी नहीं निकला बता इस दौर में इक़बाल-'साजिद' कौन निकलेगा सदाक़त का अलम ले कर अगर तू भी नहीं निकला