रुख़्सार को है ज़ुल्फ़-ए-शिकन-दर-शिकन से रब्त या'नी है शैख़-ए-काबा को अब बरहमन से रब्त यूँही है मुझ को उस बुत-ए-पैमाँ-शिकन से रब्त है चंद रोज़ा रूह का जैसे बदन से रब्त फूलों को जिस तरह हो बहार-ए-चमन से रब्त यूँही था मुझ को भी किसी गुल-पैरहन से रब्त रखता नहीं हूँ सिर्फ़ हुसैन-ओ-हसन से रब्त है मुझ को चार यार से और पंजतन से रब्त ख़ुशियाँ मनाएँ ग़ैर न इस इर्तिबात पर मुझ से भी था कभी बुत-ए-पैमाँ-शिकन से रब्त हम्द-ओ-सना में तेरी मैं रत्ब-उल-लिसाँ रहूँ जब तक रहे दहन में ज़बाँ को सुख़न से रब्त दीवाना चश्म-ओ-गेसू-ए-मुश्कीं का हूँ तिरे रखता हूँ इस लिए मैं ग़ज़ाल-ए-ख़ुतन से रब्त हम भी किसी के तीर-ए-नज़र के शिकार थे हम को भी था कभी किसी नावक-फ़गन से रब्त किस दर्जा तूल है शब-ए-तार-ए-फ़िराक़-ए-यार शायद है उस को ज़ुल्फ़-ए-शिकन-दर-शिकन से रब्त तीर-ए-नज़र से दिल को न छलनी बनाओ 'बद्र' अच्छा नहीं है इस बुत-ए-नावक-फ़गन से रब्त