रूमाल जो हम भिगो रहे हैं आँखों से मलाल धो रहे हैं गुम-गश्ता शनाख़्त के मुसाफ़िर हिजरत का ग़ुबार ढो रहे हैं ख़्वाहिश के ये सर्द-मेहर लाशे सीने में हनूत हो रहे हैं ये सूर है दूसरी दफ़अ' का और लोग तमाम सो रहे हैं उस ख़्वाब को बा-वज़ू था छूना हम नींद से हाथ धो रहे हैं क्यों सुब्ह तलाश करते करते हम रात का हुस्न खो रहे हैं यादों का बबूल ढल चुका जब ये क्या है जो वो चुभो रहे हैं